यह उन लाखों कोसी वासियों के दुख की कहानी नहीं है जिन्होंने 2008 में कुछ महीनें कोसी की बलखाती लहरों के थपेड़ों के बीच गुजारे बल्कि यह उन दूसरे लाखों लोगों की दास्तान है जो चालीस साल से इस नदी के थपेड़ों से जूझ रहे हैं. बाढ़ से मुक्ति के नाम पर हुए प्रयोग में सरकार ने इस नदी को जब तटबंधों के बीच कैद किया तो उस पिंजरे से वह इन लाखों लोगों को बाहर निकालना भूल गई. पिछले पचास से अधिक सालों से पिंजरा बंद है और सामने भूखी बाघिन. लोग बार-बार पिंजरे के उस कोने में दुबकते की कोशिश करते हुए जी रहे हैं जहां बाघिन का झपट्टा या उसकी निगाह न पहुंचे. यह दास्तान उन्हीं लाखों कोसी पीड़ितों की है.
17 अगस्त 2008. पचास से अधिक सालों से तटबंधों के बीच कैद कोसी नदी ने खुद को इस कैद से पूरी तरह आजाद कर लिया और बिल्कुल नए इलाके में बहने लगी. पूरी की पूरी 1 लाख 71 हजार क्यूसेक जल प्रवाह वाली इस नदी ने सिल्ट से भर चुके अपने पुराने रास्ते और 16 फीट ऊंचे तटबंध को तोडक़र नया रास्ता बना लिया यह सोचे बगैर कि उस राह में खेत है या मकान है या कस्बा है या गांव. यह सोचना उसका काम था भी नहीं, यह तो सरकारों, नीति नियंताओं और उन्हें लागू करने और उनकी देखभाल करने वाले अभियंताओं का काम था. मगर उन लोगों ने पिंजरे में बंद बाघिन को वैसी सुविधाएं नहीं दी जिससे उसका मन पिंजरे में लगा रहे(वैसे किसका मन पिंजरे में लगता है, आजादी किसको प्यारी नहीं होती), तो उस बाघिन का बाहर निकल आना तो इसी बात पर निर्भर था कि वह कब पिंजरे को तोड़ पाती है. बहरहाल ऐतिहासिक आपदा आई और छह सात महीने तक उत्तर-पूर्वी बिहार के तकरीबन साढ़े पांच सौ गांवों में ठहरी रही. आपदा बड़ी खबर बनी और उस खबर ने करोड़ों की राहत सामग्री और हजारों मददगारों को आमंत्रित किया. वैसे तो जब लोग मुसीबत में हों तो ऐसी बातें करना उचित नहीं होता, मगर कोसी नदी के सबसे बड़े विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र ने उस वक्त ही यह सवाल उठा दिया कि क्या यह मदद उन साढ़े तीन सौ गांव के लोगों को मिल पाएगी जहां अगले साल ऐसी ही बाढ़ आएगी औैर हर साल बाढ़ आती ही है. बाढ़ जिनके जीवन में एक आपदा या एक घटना न होकर स्थायी उपस्थिति के रूप में एक रूटीन के रूप में दर्ज हो गई है. जैसे मार्च में होली आती है, अप्रैल में गर्मियां शुरू होती है, जून-जुलाई में मानसून शुरू होता है, अक्तूबर-नवंबर में विजयादशमी, दीपावली और छठ वैसे ही अगस्त में बाढ़. उनके लिए अगस्त का महीना बाढ़ का महीना होता है और इससे लडऩे के लिए वे जून-जुलाई से ही तैयारियां शुरू कर देते हैं बाढ का पानी जब तक उतरता नहीं वे टापुओं की तरह अपने-अपने घरों में दुबके रहते हैं, सारा काम नाव से करते हैं. बाहरी दुनिया से बस जरूरत भर का संपर्क होता है. अक्तूबर में जब पानी उतरने लगता है तो दुर्गा मां के स्वागत की तैयारियों के साथ उनके जीवन का सवेरा शुरू होने लगता है. यह कहानी एक-दो गांव की नहीं पूरे साढ़े तीन सौ गांव की है औैर यहां आपका ध्यान खीचना चाहूंगा कि साढ़े तीन सौ और साढ़े पांच सौ की संख्या में ज्यादा फर्क नहीं होता. इन्हीं साढ़े पांच सौ गांवों को बाढ़ की आपदा से बचाने के लिए कोसी नदी के दोनो किनारों को ऊंचे तटबंधों से बांधा गया है और उन तटबंधों के बीच साढ़े तीन सौ गांव भी कैद हो गए हैं जिन्हें हर साल उसी बाढ़ की आपदा को झेलता पड़ता है. आप सोचते होंगे कि सरकार ने कम से कम दो सौ गांवों को तो बचा लिया. जी नहीं, आप गलत सोचते हैं, तटबंध बनने के बाद जो नदियां कोसी में मिलती थीं वह अब इस नदी में मिल नहीं पाती, लिहाजा तटबंधों के दोनों किनारों में पूरे साल जलजमाव का नजारा होता है और इस जल जमाव में 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन डूबी रहती है. यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि कोसी तटबंध परियोजना का लक्ष्य कुल 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाना था.
इतना सबकुछ जानने के बाद यह सवाल सहज ही मन में उठता है कि आखिर ऐसी विषम परिस्थितियों में ये लोग रहते ही क्यों हैं? क्या इनका पुनर्वास नहीं हुआ? इसका जवाब है कि इन लोगों के साथ पुनर्वास के नाम पर जो कुछ हुआ वह एक धोखा साबित हुआ. सरकार ने बहुजन हिताय के नाम पर इनसे जो कुर्बानी ली उसने इन लाखों लोगों की जिंदगी तबाह कर दी. आज जो कुछ नर्मदा घाटी में हो रहा है, उससे कहीं बड़ी त्रासदी है कोसी पीड़ितों की कहानी. कोसी के लाखों लोगों के साथ हुआ यह अभियांत्रिकी प्रयोग कहीं अधिक हृदय विदारक है. मगर आज भी यह कहानी सात पर्दों के पीछे छुपी है.
देश की दूसरी नदियों की तरह कोसी का स्वभाव शांत और निर्मल नहीं है. इसके स्वभाव में अल्हड़पन औैर मतवालापन अधिक है.वर्तमान में यह नदी जहां बहती है, महज 150 साल पहले वह यहां से 100 मिलोमीटर पूर्व में बहा करती थी. इसके बाद से वह हर 20-25 साल पर अपना रास्ता बदलकर पश्चिम की ओर खिलकती रही और इस दौरान इस इलाके में भारी तबाही मचाती रही. कोसी नदी के इस व्यवहार के पीछे इस नदी द्वारा लाए गए सिल्ट की अत्यधिक बताई जाती है. इस नदी में मौजूद सिल्ट की मात्रा के बारे में एक ब्रिटिश वैज्ञानिक एफसी हस्र्ट ने 1908 में कहा था ‘कोसी नदी हर साल लगभग 5 करोड़ 50 लाख टन गाद लाती है और मेरा अनुमान है कि इसमें से 3.7 करोड़ टन गाद वह अपने आसपास के इलाके में डाल देती है. 3.7 करोड़ टन गाद का मतलब लगभग 1.96 लाख घनमीटर होता है.’ हर वर्ष इतनी मात्रा में गाद लाने के कारण नदी की पेटी बहुत जल्द ऊंची हो जाती थी और मजबूरन उसे अपना रास्ता बदलकर निचले इलाके में बहने के लिए मजबूर होना पड़ता था. बहरहाल नदी के इस स्वभाव के कारण स्थानीय लोगों को भारी तबाही का सामना करना पड़ता था. इसके अलावा सालों-साल आने वाली बाढ़ और इसके कारण फैलने वाली हैजा, मलेरिया और कालाजार जैसी बीमारियां अलग थीं. त्रस्त जनता अपने नेताओं से इसकी गुहार लगाती और नेता इस गुहार को केंद्रीय प्रशासन तक पहुंचाते. ब्रिटिश सरकार तो इस समस्या के समाधान के प्रति जरा भी इच्छुक नहीं थी, उन्हें जनता के दुख दूर करने के लिए करोड़ों खर्च करने की क्या पड़ी थी. ऐसे में जब भारत आजाद हुआ और देश की कमान पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे संवेदनशील और वैज्ञानिक दृष्टिïकोण वाले नेता ने संभाली तो कोसी वासियों में उम्मीदें जगीं कि पंडितजी उनकी इस समस्या का कोई न कोई हल जरूर निकालेंगे.
जब समस्या उनकी निगाह में लाई गई तो इसके बेहतर समाधान के रास्ते तलाशे जाने लगे. उस समय कई विकल्पों पर विचार किया गया और अंतत: इस समाधान पर सहमति बनी कि भारत-नेपाल सीमा पर भीमनगर कस्बे के पास कोसी नदी पर एक बराज बनाया जाए और इस अल्हड़ नदी को दो तटबंधों के बीच गिरफ्तार कर लिया जाए. फिर जैसा कि आम तौर पर ऐसी खर्चीली इंजीनियरिंग आधारित समाधानों के साथ होता है, इस परियोजना से कुछ अन्य फायदों की गुंजाइश निकाली गई. यानि पूर्वी और पश्चिमी कोसी नहर परियोजनाएं जिससे तकरीबन 10 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई का लक्ष्य रखा गया था और इसके अलावा सुपौल जिले के कटैया में 16 मेगावाट क्षमता वाली जल विद्युत परियोजनाएं.
कागज पर यह परियोजना इतनी सम्मोहक थी कि अभियंताओं और देश के नीति नियंताओं ने इसके नफा-नुकसान का बारीकी से आकलन किए बगैर इसे मंजूरी दे दी. पहले तो स्थानीय लोगों को लगा कि इस परियोजना से उनके दिन फिर जाएंगे, पूरा इलाका पंजाब-हरियाणा की तरह हरा-भरा होगा और खेंतें सोना उगलेंगी. मगर उनकी यह आस छलावा साबित हुई. आज की तारीख में परियोजना शुरू होने के 57 साल बाद भी पश्चिमी कोसी नहर परियोजना का एक चौथाई काम भी पूरा नहीं हुआ है, इसकी लागत जरूर हर साल बढ़ती गई है. यह परियोजना अपने लक्ष्य के 7 फीसदी से भी कम जमीन की सिंचाई कर पाती है. पूर्वी कोसी नहर परियोजना भी कुछ हद तक ही सफल हो पाई है. इस परियोजना का काम पूरा हो चुका है, मगर इसके बावजूद यह अपनी क्षमता के 20 फीसदी भूभाग की ही सिंचाई कर पाती रही है, मगर हाल के दिनों में नहरों में इतना बालू भर गया है कि पिछले एक दशक से इन नहरों से सिर्फ बाढ़ का पानी आता है, सिंचाई नहीं हो पाती. हां हर साल नहर से सिंचाई की लागत वसूलने वाली सरकारी पर्ची जरूर आ जाती है और इसका भुगतान न करने पर जमीन के मालिकाना हक से महरूम करने का खतरा बना रहता है. कटैया विद्युत परियोजना भी बालू भर जाने के कारण बंद ही रहती है.
अब कुछ बातें बाढ़ नियंत्रण की, जो इस परियोजना का प्रमुख लक्ष्य रहा है. नदी को बांधने वाला तटबंध अपने निर्माण के बाद के 47 सालों में 7 बार टूृट चुका है, जिसके कारण सैकड़ों गांव तबाह होते रहे हैं. इसके अलावा इन तटबंधों के कारण होने वाले जलजमाव से 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन लगभग पूरे साल डूबी रहती है, जबकि इस परियोजना का लक्ष्य 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से सुरक्षा देना रहा है. लगभग पचास साल पहले पूरी हुई इस परियोजना का हिसाब-किताब आज की तारीख में कौन ले? मगर हद तो इस बात की है कि इस उदाहरण से आज की तारीख में सबक सीखने के लिए भी कोई तैयार नहीं.
यह तो कोसी परियोजना की विडंबना की कहानी है जिसके बारे में श्री दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी किताब ‘दुई पाटन के बीच में’ में विस्तार से लिखा है. यह किताब मूलत: उन्हीं लाखों लोगों के कष्टïमय जीवन के बारे में है जो कोसी नदी के दो पाटों यानि तटबंधों के बीच में फंसे हैं. तटबंध निर्माण के वक्त जैसा कि राजनेता किया करते हैं, उन्होंने लोगों को गोल-मटोल लहजे में आश्वासन दिया कि इस परियोजना से जो भी लोग प्रभावित होंगे सरकार उन्हें बेहतर जमीन और बेहतर पुनर्वास उपलब्ध कराएगी. पचास साल पहले के लोगों के लिए पुनर्वास की तिकड़में अनजानी थी, उन्होंने सहज विश्वास कर लिया. जब पुनर्वास की बारी आई तो सरकार ने बड़ा ही रोचक समाधान तैयार किया. इसके मुताबिक तटबंध के अंदर जो जमीन है वहां बाढ़ की समस्या साल में सिर्फ तीन महीने रहेगी, यानि वहां की जमीन पर खेती करने में कोई परेशानी नहीं. ऐसे में लोगों को न तो वहां की जमीन का मुआवजा मिलेगा और न ही उसके बदले में जमीन. हां उनके घरों के बदले कुछ लोगों को जमीन उपलब्ध कराई गई और कुछ लोगों को घर के बदले दो किस्तों में नकद मुआवजा देने की बात कही गई. जिन लोगों को जमीन दी गई उनकी जमीन तटबंध के कारण देरसबेर जलजमाव का शिकार हो गई और जिनसे मुआवजा का वादा किया गया उनमें से अधिकांश को मुआवजे की एक किस्त से ही संतोष करना पड़ा. इसके बाद आने वाले समय में लोगों की समझ में आया कि अगर खेत घर से पांच किलामीटर की दूरी पर भी हो तो खेती करना और फसल की रक्षा कर पाना बहुत कठिन व्यवसाय साबित होता है. ऐसे में कुछ लोगों ने अपने पैत्रिक जमीन को औने-पौने दाम में बेचकर दिल्ली-पंजाब की राह पकड़ ली और बांकी बचे लोग पुनर्वास में मिली जमीन का मोह त्याग कर वापस उसी नर्क में पहुंच गए जहां उनकी आजीविका का साधन उनके खेत थे.
ऐसे लोगों के लिए अब सामने नदी थी और माथे पर सवार उनकी किस्मत. सरकार तो इतनी दूर थी कि उनसे भेट-मुलाकात छठे-छमाही ही हो पाती. लिहाजा एक अजीब सी स्थिति पैदा हुई. तटबंधों के बीच जहां लाखों लाचार लोग रह रहे हैं, वहां न तो स्कूल हैं, न बिजली, न डाकघर, न फोन-मोबाइल और अस्पताल व थाना-पुलिस भी नहीं. यानि इक्कसवीं सदी के शुरुआत में वहां सोलहवीं सदी का नजारा देखा जा सकता है. सवारी के नाम पर घोड़ा, बैलगाडिय़ां और नाव. हर चार-पांच साल में या तो बाढ़ उनके आशियाने को उजाड़ देती है या फिर नदी से आने वाला बालू उनके घरों को भर कर रहने लायक नहीं छोड़ता. लिहाजा विस्थापन दर विस्थापन. तटबंधों के अंदर कई ऐसे परिवार हैं जो सत्रह बार विस्थापित हो चुके हैं. वहां रात के वक्त अगर कोई गंभीर रूप से बीमार पड़ जाए तो उसका भगवान ही मालिक होता है, क्योंकि सुबह होने से पहले उस पिंजरे से निकल पाने का ना तो रास्ता होता है और न ही लोगों में उस अंधेरे बियाबान में निकलने की हिम्मत. आपस के झगड़े लोग खुद सुलझाते हैं, चुकि वहां पुलिस नहीं है ऐसे में ताकतवर ही अक्सर सही साबित होता है. बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण खेतों का सीमांकण मिट जाता है, फिर फैसला ताकत के जोर पर होता है. फिर भी लोग रहते हैं, क्योंकि दूसरा कोई बेहतर विकल्प नहीं है. सरकार उन्हें अक्सर भूल जाती है, जब याद आता है तो उनका तर्क यही होता है कि इन लोगों ने अपनी मर्जी से वहां रहने का फैसला किया है, हमने तो उनका बेहतर पुनर्वास किया था. अब अगर वे वहां रहने के बदले यहां रह रहे हैं तो जरूर उन्हें यहां फायदा नजर आ रहा होगा.
अगस्त 2008 में जब नदी ने अपना रास्ता बदल लिया तो इस इलाके के लोग काफी खुश हुए कि नदी ने उन्हें बख्श दिया है, अब दुबारा लौटकर उनके गांव नहीं आएगी. मगर एक बार फिर समाधान के मसले पर इन लोगों के बदले इंजीनियरों की चली और नदी को फिर से सफलतापूवर्क इन्हीं तटबंधों के बीच बहने को मजबूर कर दिया गया. अब नीतीश सरकार इन तटबंधों पर पक्की सडक़ें बनवा रही है, ताकि आवागमन की सुविधा हो और तटबंधों की बेहतर निगरानी की जा सके. मगर इस अभियान में उन हजारों लोगों के घर उजड़ रहे हैं, जो बार-बार के विस्थापन से परेशान होकर अपने इलाके से सबसे सुरक्षित स्थान माने-जाने वाले इन तटबंधों पर ही झोपडिय़ां बनाकर बस गए थे. खैर उनका क्या? उन्हें तो उजड़-उजडक़र बसने की आदत हो चुकी है. सरकार इसी तरह लोगों की भलाई के नाम पर ठेका कंपनियों और इंजीनियरों का घर बसाती रहे.
यह आलेख नागरिक विकल्प नामक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.