संतोष की माय का ठहाका
कोसी का जिक्र आता है तो रेणुजी साथ-साथ चले आते हैं। इस अंचल के लोगों की जीवटता और दुख-दारिद्र में जष्न मनाने की अदा का वर्णन करने के लिए उन्होंने न जाने कितनों के बोल सहे ण्ण्ण्। फिर भी लोगों ने अब तक नहीं माना कि मौत के सामने ठहाका लगाने वाले माटी की मूरतें नहीं असली दुनिया के बाषिंदे हैं। पर मैनें आज देख लिया, धमारा स्टेषन पर बरौनी से सहरसा जाने वाली टेन मेें ठहाका लगा-लगाकर लोगों को अपने इलाके की बाढ की कहानियां सुनाती संतोष की माय को। जानै छौ सिपाही सब जे बोट लाय के पहिलुक बेर हमर गांम एलै त एक्को बुढवा नाह पर चढै ल तैयार नै भेले। फौजियों की बोट पर चढने के लिए कोई बूढा तैयार नहीं हो रहा था, उन्हें लग रहा था कि कहीं ये लोग गिरफतार करने तो नहीं आ रहे। एगो बनिया मोटरसायकिल पर जाइत रहे कि सामना से ठाढे
बिजनेसमैन मोटरसायकिल पर सवार कहीं जा रहा था कि सामने से कोसी की चार-पांच फुट उंची लहर आती दिखी। वह बाइक छोडकर भागा और एक पेड पर चढ गया। अब पानी उतरने का नाम ही न ले। एक दिन भूखे-प्यासे रहने के बाद अगले दिन उसने मोबाइल से अपने भाई को फोन किया। फिर उसका भाई पांच हजार में तीन तैराकों को लेकर वहां पहुंचा और उसकी जान बचाई। जिंदगी और मौत के ऐसे ही कई किस्से संतोष की माय ने हमें ठहाका लगा-लगाकर सुनाए कि किस तरह एक कलछुल खिचडी के दम पर उसने तीन दिन गुजार लिए, पैदल ही फारबिसगंज से सहरसा आ गई, वगैरह-वगैरह। वह परसों पंजाब जाने वाली है। उसका लक्ष्य है तीन महीने में इतना कमा लेना कि लौटकर जब वह आए तो अपना घर फिर से खडा कर सके। मैनें उसे बताया नहीं कि सरकार उसे उसके घर का मुआवजा देने की योजना बना रही है। मैं चाहता था कि उसकी जीवटता कायम रहे और उसे लोग सलाम करें।
फिर पंजाब को आबाद करेंगे
सचमुच कोसी के लोगों की जीवटता को सलाम करने की जरूरत है। एक भी विस्थापित सरकारी रिलीफ कैंप में रहने को मन से तैयार नहीं। जहां-जहां से पानी उतरने की खबर आती है, वहां के लोग रिलीफ कैंपों को छोड अपने घरों की ओर भागने लगते हैं। क्या भंसा-क्या बचा इसका जायजा लेना है। छपपर ठीक करना है, गीले अनाज को सुखाना है। फिर योजना बनाना है कि कितने दिनों में कितनी मेहनत के बाद सबकुछ पटरी पर आ पाएगा। सीएम घोषणा पर घोषणा कर रहे हैं कि अभी कैंपों में ही रहें, अगले कुछ दिनों में पानी बढ सकता है। मगर जिसे उजडे घरों को फिर से संवारने की फिक्र है उसे भला कैसे रोका जा सकता है। जिन इलाकों में पानी नहीं उतरा वहां के लोग भी रिलीफ कैंपों को छोडकर भाग रहे हैं। कह रहे हैं- यहां बैठकर क्या करना। एक सीजन पंजाब में कमा लिया जाए। जब लौटेंगे तो पानी भी उतर जाएगा और अपने पास पैसा भी होगा जिससे उजडा घर फिर से बसाया जाएगा।
बैराज, सिल्ट और बदली धारा
मनीष के पिताजी रिटायर एसिस्टेंट इंजीनियर हैं। अपने कैरियर के शुरूआती दिनों में उन्होंने कोसी परियोजना के वीरपुर संभाग में काफी वक्त गुजारा है, लिहाजा बैराज, सिल्ट और बदली धाराओं के बारे में उनकी अच्छी समझ है। उन्होंने बताया कि वे लोग हवा-हवाई बातें कर रहे हैं जो कहते हैं कि बैराज की उम्र 27-28 साल ही होती है। अगर बैराज का रेगुलेषन सही तरीके से किया जाए तो वहां कभी गाद जमे ही नहीं। 1991 तक ऐसा किया भी जाता रहा। यानि फाटकों को अदला-बदली कर खोलना। 1991 से पहले वहां अभियंताओं की काफी अच्छी टीम थी पर जब जगतानंद सिंह जल संसाधन मंéी बने तो उन्होंने अभियंताओं के कई पद समाप्त कर दिए। बांकी लोगों का तबादला कर दिया गया। इस वक्त जो लोग वहां थें उन्हें बैराज पर जाने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस वक्त जो फाटक खुले थे वही आज तक खुले हैं। ऐसे सिल्ट का पहाड तो खडा होना ही था।
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