कोसी की प्रलयंकारी बाढ के बाद सरकारी, गैरसरकारी संस्थाएं और आम लोगों द्वारा चलाए जा रहे बचाव और राहत कार्य का एक दौर अब समाप्ति की ओर है। बाढ के लगभग चालीस दिन बीच चुके हैं, इस दौरान आम लोगों के समूह, सेना के जवान, कुछ स्वयंसेवी संस्था, राजनीतिक दल और सरकार ने मिलकर जो काम किया है वह नििष्चत तौर पर अद्वितीय है। हालांकि इस बीच नाव के डूबने से, हैजा और डायरिया जैसी बीमारियों से, सांप काटने से और अन्य कई छोटी-बडी वजहों से बडी संख्या में लोगों ने जान गवाई है और गंवा रहे है। जबकि एक सक्षम प्रषासन इन मौतों पर जाहिर तौर पर काबू कर सकता था। क्योंकि एक बार आपदा सिर पर आ जाने के बाद हमें यह मालूम था कि यह सब हो सकता है। ये मौतें तटबंध के टूटने या नदी के धारा पलटने जैसी अप्रत्याषित घटना नहीं थी। मगर संभवत: इस आपदा के बाद कई दिनों तक प्रषासन खुद सदमें में रहा और ऐसा लगने लगा कि चीजें खुद बखुद उसके हाथ से निकलती जा रही है। इस बीच उसने मेगा कैंप लगाने जैसे कुछ असफल प्रयोग भी किए। मगर अंतत: प्रति परिवार एक िक्वंटल अनाज और 2250 रूपये नकद देने की उसकी योजना काफी सफल साबित हुई और खिचडी खिलाने की अधकचरी कोषिषों पर विराम लग गया। बहरहाल यहां मैं इस दौर में सरकार की सफलता-असफलता का जायजा लेने नहीं बल्कि इस पूरे दौर का विवरण देने की कोषिष में हूं। ताकि यह तय किया जा सके कि राहत और पुनर्वास का अगला दौर चलाया जाय या नहीं अगर चलाया जाए तो किस तरह।हर आपदा की तरह इस बार भी बचाव और राहत के इस दौर की बागडोर सबसे पहले स्थानीय लोगों ने थामी। बाढ का पानी तबाही मचाने के लिए जब गांवों में घुसने लगा तो लोग बदहवास हालत में स्थानीय कस्बों की ओर भागे। इस बार जिन इलाकों में पानी आया था वहां के लोगों ने अपनी पूरी जिंदगी में कभी बाढ देखी ही नहीं थी और उनका सामना ऐसी बाढ से हुआ जो संभवत: कोसी नदी के जीवन की सबसे खतरनाक बाढ थी। प्रत्यक्षदषीZ बताते हैं कि पानी का रेला अक्सर आठ-आठ, दस-दस फुट का होता था और उसकी गति भी सौ किमी प्रतिघंटा के लगभग होती थी। ऐसे में वही लोग बच पाए जो या तो समय रहते उंचे स्थान पर चले गए या पानी देख सबकुछ छोडकर पूरब या पिष्चम दिषा की ओर भागे। पहले तीन-चार दिन तो बाढ किसी आतंक की तरह छाया रहा। पीिZडत इलाकों से बाहर निकलने वाले लोग न तो कुछ बोल पाते न ही ठीक से खा-पी या सो ही पाते। बडी संख्या में लोगों ने खुद को पागलपन के दौर से गुजरता हुआ पाया। हमारे साथी विनय तरूण को भागलपुर में एक ऐसा व्यक्ति मिला जो किसी उंचे पहाड पर जाना चाहता था। जबकि भागलपुर खुद बाढग्रस्त इलाके से 50-60 किमी दूर है। उस दौर में स्थानीय लोगों ने चंदाकर खानेपीने और लोगों को ठहराने का अभूतपूर्व काम किया। क्योंकि उस वक्त न तो सरकार सजग हुई थी और न ही संस्थाएं पहुंची थीं। सुपौल जिले के सिमराही कस्बे में हर आदमी चंदा देता और अपने घर से खाना भी लाता। लोगों ने बताया कि उस वक्त रिक्षावाले भी दिन भर की कमाई का आधा चंदे में देने लगे थे। प्रतापगंज ब्लाक के दुअनियां गांव के राजकिषोर भगत नामक एक दुकानदार ने अपने पैसे से पंद्रह दिनों तक लोगों को चाय, सत्तू और पानी पिलाया। मेरी जानकारी में ये दो उदाहरण हैं मगर ऐसे न जाने कितने प्रयास हुए उसका कोई लेखाजोखा नहीं है। मगर इस में कोई मतभेद नहीं है कि कोसी की चपेट में जो लोग नहीं आए वे भूख और बदहवासी से मर जाते अगर स्थानीय लोगों ने उन्हें सहारा नहीं दिया होता। इस लिए मेरे हिसाब से इस दौर के सरताज यही लोग हैं। दूसरा नंबर मैं सेना के जवानों को दूंगा जिन्होंने उफनती कोसी की लहरों की सवारी करने का जोखिम उठाया और छतों, छप्परों, नहरों और अन्य जगहों पर जिंदगी और मौत से जूझ रहे लोगों को बचाकर सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। जो लोग अपने घरों को छोडने के लिए तैयार नहीं थे उनतक राहत और स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाई और तब तक डटे रहे जबतक पानी काबू में नहीं आने लगा। जैसा कि मैं पहले ही जिक्र कर चुका हूं, स्थानीय प्रषासन लगभग एक महीने तक सदमें की स्थिति में रहा और इस बीच में उसने जो कुछ किया उसका कोई असर नहीं रहा। स्थानीय लोगों की पहले भी लगभग दस दिन के बाद दम तोडने लगी थी। इस बीच करीब बीस दिनों तक मोरचा स्वयंसेवी संस्थाओं और फंडिंग एजेंसियों ने संभाला। नहरों-सडकों और स्कूलों-कालेजों में फैले बाढ पीडितों के लिए खाना उपलब्ध कराया। उन्हें टेंट, अनाज, कपडे, बरतन, साफ पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध कराईं। जारी
Wednesday, October 1, 2008
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