कोसी के बाढ़ पीड़ित इलाके में जब भी कोई राहत की बात करता है तो चारों ओर से 10 तरह की आवाजें उसे चुप करा देती हैं कि अरे इतना राहत तो बंट रहा है. सरकारी और संस्थाओं की ओर से भी. मगर सुपौल के भरतपुर गांव में महेंद्र शर्मा की मौत नीतीश सरकार की अफसरशाही की बेलगाम कार्यप्रणाली और दंभ को करारा तमाचा है. छठ के बाद से जबसे उसे जबरन राहत शिविर से वापस उसके गांव भेज दिया गया था, वह लगातार फांकाहाली का जीवन गुजार रहा था. जब अखबारों में मुख्यमंत्री की टहलती तसवीर के साथ एक एक बाढ़ पीड़ित को राहत पहुंचाने वाले विज्ञापन छप रहे थे. उस वक्त भी महेंद्र शर्मा राहत की पहली किश्त के लिए टकटकी लगाये बैठा था. पत्नी और तीन बच्चों से भरे परिवार को खिलाने के लिए आखिरकार उसे सम्मानित जीवन का बाना उतारकर भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा. मगर जिस गांव में बाढ़ की तबाही से छोटे-बड़े सब एक जैसे हो गये हों और इस पर अधिकांश लोंगों को बाढ़ के साढ़े चार माह बीतने के बावजूद सरकारी राहत की पहली किश्त भी न मिली हो, वहां कौन किसे भीख दे सकता है. महेंद्र शर्मा और उसके अन्य ग्रामीणों में फर्क सिर्फ इतना था कि वे अभी तक हालात से मुकाबला कर रहे थे और महेंद्र बेबस होकर हार गया. लिहाजा भीख से इतना मिलता था कि हफ्ते में दो तीन वक्त के खाने का ही जुगाड़ हो पाये. ऐसे में धीरे-धीरे उसका शरीर कमजोर पड़ता गया और आखिरकार 15 दिसंबर के आसपास उसने बिस्तर (पकड़) लिया. अब वह घूम घूम कर भीख मांगने के काबिल भी नहीं रहा. पड़ोसी दया कर उसके बच्चों को कभी कभी कुछ खिला देते थे. मगर उसे पूछने वाला कोई नहीं था. उसकी बेटी अनीता बताती है कि बापू ने आखिरी बार खाना 25 दिसंबर गुरुवार को खाया था. अगले आठ दिन तक उसे अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ. कमजोर और भूखा शरीर कब तक लड़ाई लड़ता आखिरकार दो जनवरी को उसने दम तोड़ दिया.उसकी कंगाली इस हाल में पहुंच गयी थी कि उसके घर वाले उसके अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियां तक नहीं जुटा पाये और हिंदू धर्म का होने के बावजूद उसे दफना दिया गया. (देखें महेंद्र शर्मा की कब्र के पास बैठे उसके छोटे बेटे संदीप की तसवीर).
उस दिन के बाद से उसकी पत्नी रनिया देवी थाना, ब्लाक मुखिया, पत्रकार हर किसी के सामने रो-रोकर यह दास्तान सुनाती है. मगर कोई उसकी शिकायत दर्ज करने को तैयार नहीं. क्योंकि अगर प्रशासन यह मान लेता है कि महेंद्र शर्मा की मौत भूख से हुई तो कलेक्टर से लेकर बीडीओ तक हर अफसर की गर्दन फंसेगी. लिहाजा हर अधिकारी अपने प्रभाव से इस खबर को येन केन प्रकारेण मीडिया में कहीं आने नहीं दे रहा.
अब थोड़ी चर्चा इस बात की महेंद्र शर्मा की मौत के पीछे किस तरह अफसरशाही की कार्यप्रणाली जिम्मेवार है. छातापुर प्रखंड के लालगंज पंचायत (भरतपुर गांव इसी पंचायत में आता है) में आज तक 900 बाढ़ पीड़ित परिवारों को सरकारी राहत की पहली किश्त भी मयस्सर नहीं हुई है. वजह उन लोगों के नाम ना तो बीपीएल सूची में है और न तो एपीएल सूची में. भरतपुर में जब राहत की पहली किश्त बंट रही थी तो कई इलाकों से ऐसी समस्याएं आयीं थीं. तब सरकार ने आदेश जारी किया था कि कोई बीपीएल-एपीएल सूची मान्य नहीं होगी, हर पीड़ित को राहत मिनी चाहिए. लिहाजा कई इलाकों में वोटर लिस्ट के आधार पर बंटवारा हुआ तो कई जगह छूटे हुए लोगों से आवेदन मांगे गये. और उन्हें स्वीकार कर राहत उपलब्ध करा दी गयी. इन प्रक्रियाओं के बावजूद अधिकतर इलाकों में राहत नवंबर माह तक बांट दी गयी मगर लालगंज पंचायत के उन परिवारों को आज 10 जनवरी तक राहत की पहली किश्त भी नहीं मिल पायी है. हालांकि पांच सौ लोगों के आवेदन स्वीकृŸत हो चुके हैं पर उन्हें राहत मिली नहीं. मगर क्यों इस सवाल का जवाब कोई देने की स्थिति में नहीं है. सरकारी कर्मचारी सात जनवरी से हड़ताल पर हैं. लालगंज के पूर्व उप मुखिया रंजीत कुमार रमण बताते हैं कि यह सब अफसरों की ढिलाई के कारण हो रहा है. आपूर्ति पदाधिकारी से लेकर अनुमंडल विकास पदाधिकारी त्रिवेणीगंज तक हमेशा व्यस्त ही नजर आते हैं. हमलोगों के बार-बार गुहार लगाने के बावजूद हमेशा टाल मटोला करते रहते हैं. अभी तक एक महेंद्र मरा है यही हालत रही तो अगले 15 दिनों में इस पंचायत में कुछ और मौते हो सकती हैं.
अब दूसरा सवाल कि इंसान या तो गरीबी रेखा से उपर (एपीएल) या गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) ऐसे में एक पंचायत में 900 परिवार इस सूची से बाहर कैसे हो जाते हैं. इसका जवाब भी अफसरशाही तिकड़मबाजी में ही छूपा है. जब पंचायतों की ओर से बीपीएल सूची ब्लाक में पेश की गयी तो बीडीओ महोदय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने लोग गरीब कैसे हो सकते हैं. यह फरमान जारी हुआ कि 20 प्रतिशत गांव बीपीएल सूची से काट दिये जायें. फरमान की तामिल हुई और करीब 20 प्रतिशत लोग न तो एपीएल सूची में रहे और न ही बीपीएल. उन्हीं लोगों में मृतक महेंद्र शर्मा भी हैं. भूमिहीन और रोजगारविहीन होने के बावजूद, दूसरों की जमीन में झुग्गी बना के रहने के बावजूद वह गरीब नहीं था. लिहाजा उसे वर्षों से कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल रही थी. नरेगा के अंतर्गत उसका जॉब कार्ड भी नहीं बना. अब उसकी मौत के बावजूद मुआवजा तो दूर उसके परिवार को पारिवारिक योजना का लाभ भी नहीं मिलेगा, जिसके तहत बीपीएल परिवार के मुखिया के मौत के बाद तत्काल 10 हजार की सरकारी राहत मिलती है. इसे कहते हैं सरकारी कलम की मार. महेंद्र शर्मा और लालगंज के 900 परिवार और इस इलाके के न जाने कितने परिवार न तो गरीबी रेखा के नीचे हैं और न उपर. वे न जाने कहां हैं. बहरहाल, इसी हफ्ते हमने अखबार में बिहार सरकार की ओर से प्रकाशित पूरे पेज का विज्ञापन देखा. जिसमें मुख्यमंत्री बता रहे थे कि बाढ़ पीड़ित इलाके के लिए सरकार ने कितना कुछ किया है. संभवत: उसी दिन या एक दो दिन आगे पीछे यह खबर भी पढ़ी कि सुपौल के राघोपुर मुख्यालय में बाढ़ पीड़ितों ने खाद्य निगम के गोदाम लुटने की कोशिश की. बचाव में पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी, पांच बाढ़ पीड़ित गिरफ्तार कर लिये गये. गिरफ्तार बाढ़ पीड़ित अपनी किसमत को सराह रहे होंगें कि चलो जेल में कम से कम खाना तो मिलेगा.
अंत में मुख्यमंत्री महोदय से एक अनुरोध है कि उनके राहत कोष में जो पैसा जमा है उससे बड़ी मात्रा में बंदुकों की गोलियां ही खरीदवा ही लें, क्योंकि बाढ़ पीड़ित तो ऐसे हैं कि इतना सब कुछ करने के बावजूद भूखे ही रह जाते हैं. गोदाम तो तोड़ने की कोशिश करते ही हैं, सरकार को बदनाम करने की कोशिश में भूखे मर भी जाते हैं.
उस दिन के बाद से उसकी पत्नी रनिया देवी थाना, ब्लाक मुखिया, पत्रकार हर किसी के सामने रो-रोकर यह दास्तान सुनाती है. मगर कोई उसकी शिकायत दर्ज करने को तैयार नहीं. क्योंकि अगर प्रशासन यह मान लेता है कि महेंद्र शर्मा की मौत भूख से हुई तो कलेक्टर से लेकर बीडीओ तक हर अफसर की गर्दन फंसेगी. लिहाजा हर अधिकारी अपने प्रभाव से इस खबर को येन केन प्रकारेण मीडिया में कहीं आने नहीं दे रहा.
अब थोड़ी चर्चा इस बात की महेंद्र शर्मा की मौत के पीछे किस तरह अफसरशाही की कार्यप्रणाली जिम्मेवार है. छातापुर प्रखंड के लालगंज पंचायत (भरतपुर गांव इसी पंचायत में आता है) में आज तक 900 बाढ़ पीड़ित परिवारों को सरकारी राहत की पहली किश्त भी मयस्सर नहीं हुई है. वजह उन लोगों के नाम ना तो बीपीएल सूची में है और न तो एपीएल सूची में. भरतपुर में जब राहत की पहली किश्त बंट रही थी तो कई इलाकों से ऐसी समस्याएं आयीं थीं. तब सरकार ने आदेश जारी किया था कि कोई बीपीएल-एपीएल सूची मान्य नहीं होगी, हर पीड़ित को राहत मिनी चाहिए. लिहाजा कई इलाकों में वोटर लिस्ट के आधार पर बंटवारा हुआ तो कई जगह छूटे हुए लोगों से आवेदन मांगे गये. और उन्हें स्वीकार कर राहत उपलब्ध करा दी गयी. इन प्रक्रियाओं के बावजूद अधिकतर इलाकों में राहत नवंबर माह तक बांट दी गयी मगर लालगंज पंचायत के उन परिवारों को आज 10 जनवरी तक राहत की पहली किश्त भी नहीं मिल पायी है. हालांकि पांच सौ लोगों के आवेदन स्वीकृŸत हो चुके हैं पर उन्हें राहत मिली नहीं. मगर क्यों इस सवाल का जवाब कोई देने की स्थिति में नहीं है. सरकारी कर्मचारी सात जनवरी से हड़ताल पर हैं. लालगंज के पूर्व उप मुखिया रंजीत कुमार रमण बताते हैं कि यह सब अफसरों की ढिलाई के कारण हो रहा है. आपूर्ति पदाधिकारी से लेकर अनुमंडल विकास पदाधिकारी त्रिवेणीगंज तक हमेशा व्यस्त ही नजर आते हैं. हमलोगों के बार-बार गुहार लगाने के बावजूद हमेशा टाल मटोला करते रहते हैं. अभी तक एक महेंद्र मरा है यही हालत रही तो अगले 15 दिनों में इस पंचायत में कुछ और मौते हो सकती हैं.
अब दूसरा सवाल कि इंसान या तो गरीबी रेखा से उपर (एपीएल) या गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) ऐसे में एक पंचायत में 900 परिवार इस सूची से बाहर कैसे हो जाते हैं. इसका जवाब भी अफसरशाही तिकड़मबाजी में ही छूपा है. जब पंचायतों की ओर से बीपीएल सूची ब्लाक में पेश की गयी तो बीडीओ महोदय ने आश्चर्य व्यक्त किया कि इतने लोग गरीब कैसे हो सकते हैं. यह फरमान जारी हुआ कि 20 प्रतिशत गांव बीपीएल सूची से काट दिये जायें. फरमान की तामिल हुई और करीब 20 प्रतिशत लोग न तो एपीएल सूची में रहे और न ही बीपीएल. उन्हीं लोगों में मृतक महेंद्र शर्मा भी हैं. भूमिहीन और रोजगारविहीन होने के बावजूद, दूसरों की जमीन में झुग्गी बना के रहने के बावजूद वह गरीब नहीं था. लिहाजा उसे वर्षों से कोई सरकारी सुविधा नहीं मिल रही थी. नरेगा के अंतर्गत उसका जॉब कार्ड भी नहीं बना. अब उसकी मौत के बावजूद मुआवजा तो दूर उसके परिवार को पारिवारिक योजना का लाभ भी नहीं मिलेगा, जिसके तहत बीपीएल परिवार के मुखिया के मौत के बाद तत्काल 10 हजार की सरकारी राहत मिलती है. इसे कहते हैं सरकारी कलम की मार. महेंद्र शर्मा और लालगंज के 900 परिवार और इस इलाके के न जाने कितने परिवार न तो गरीबी रेखा के नीचे हैं और न उपर. वे न जाने कहां हैं. बहरहाल, इसी हफ्ते हमने अखबार में बिहार सरकार की ओर से प्रकाशित पूरे पेज का विज्ञापन देखा. जिसमें मुख्यमंत्री बता रहे थे कि बाढ़ पीड़ित इलाके के लिए सरकार ने कितना कुछ किया है. संभवत: उसी दिन या एक दो दिन आगे पीछे यह खबर भी पढ़ी कि सुपौल के राघोपुर मुख्यालय में बाढ़ पीड़ितों ने खाद्य निगम के गोदाम लुटने की कोशिश की. बचाव में पुलिस को गोलियां चलानी पड़ी, पांच बाढ़ पीड़ित गिरफ्तार कर लिये गये. गिरफ्तार बाढ़ पीड़ित अपनी किसमत को सराह रहे होंगें कि चलो जेल में कम से कम खाना तो मिलेगा.
अंत में मुख्यमंत्री महोदय से एक अनुरोध है कि उनके राहत कोष में जो पैसा जमा है उससे बड़ी मात्रा में बंदुकों की गोलियां ही खरीदवा ही लें, क्योंकि बाढ़ पीड़ित तो ऐसे हैं कि इतना सब कुछ करने के बावजूद भूखे ही रह जाते हैं. गोदाम तो तोड़ने की कोशिश करते ही हैं, सरकार को बदनाम करने की कोशिश में भूखे मर भी जाते हैं.