राहत अभियान के खत्म होने का यह कतई अर्थ नहीं है कि हमारा अभियान खत्म हो गया। हमने इस आपदा के बाद इस इलाके का रूख सिर्फ राहत बांटने के लिए नहीं किया था। हमारा लक्ष्य था कि हम कोसी नदी की उस समस्या को समझे जिसके कारण दो सौ किमी की चौडाई में फैला एक बडा समाज सदियों से पीडित और उपेक्षित रहा है। इसी कडी में हमने एक नई राह चुनी है। वह है इस बार के सभी बाढ पीडित गांवों की यात्रा का अभियान। हमारी यह यात्रा वराह क्षेत्र से षुरू होगी, जहां से कोसी की सात धाराएं मिलकर एक होती है और अपने मैदानी भाग की यात्रा षुरू करती है। हम अपनी यात्रा कार्तिक पूणिZमा के दिन षुरू करना चाहते हैं, जिस दिन वहां भव्य मेला लगता है और पूरे इलाके के लोग पहुंचते हैं। वहां से षुरू होकर हमारी यात्रा कोसी की नई धारा से सटे सुपौल, मधेपुरा, खगडिया, भागलपुर से होते हुए कटिहार जिले के कुरसेला नामक स्थान तक पहुंचेगी, जहां कोसी नदी गंगा से मिलती है। फिर वहां से कोसी के दूसरे किनारे पर कटिहार, मधेपुरा और अररिया जिले के प्रभावित गांवों से गुजरते हुए नेपाल की सीमा तक जाएंगे। यात्रा के दूसरे चरण में हम तटबंध के भीतर के गांवों में जाएंगे, जहां इससे पहले कोसी नदी बहा करती थी। यात्रा के दौरान हमने करीब 100 प्रभावित पंचायतों में एक-एक रात गुजराने का फैसला किया है। इस तरह हमारी यह यात्रा सौ दिनों की होगी, जो लगातार न होकर अलग-अलग चरणों में समाप्त होगी। इस यात्रा का लक्ष्य आपदा के दौरान हुई जानमाल की क्षति का आकलन, आपदा और पिछले ढाई माह में चले सरकारी और गैरसरकारी राहत कार्य का दस्तावेजीकरण, इस घटना के बाद लोगों के जीवन में आए भौगोलिक, सामजिक और आर्थिक बदलाव का पता लगाना, कोसी समस्या के समाधान को लेकर लोगों की सोच का जायजा लेना और केंद्र सरकार की सीआरएफ नीतियों का प्रचार-प्रसार करना ताकि लोगों को उनका उचित मुआवजा मिल सके।
Tuesday, November 4, 2008
राहत अभियान समाप्ति की ओर
मित्रों कोसी पीडितों के बीच पांच सितंबर से चल रहा हमारा राहत अभियान अब समाप्ति की ओर है। करीब-करीब सारे पीडित अपने-अपने गांव जा चुके हैं और उनके गांवों में पंचायत की ओर से नियमित तौर पर प्रतिमाह दो िक्वंण् अनाज और कुछ धनराषि का वितरण किया जा रहा है। लिहाजा अब राहत सामग्री का वितरण लोगों को निकम्मा और लालची बनाने भर ही रह जाता। हालांकि हमने सोचा था कि नवंबर महीने में हम पीडितों के बीच भारी मात्रा में गर्म कपडे बांटेंगे, मगर इस अभियान के लिए हमें पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पाया। ऐसे में इस अभियान को बंद कर देना ही उचित था। मगर अत्यंत अल्प साधनों में लगभग ढाई महीने चला सिझया समांग का यह अभियान हमारे लिए यादगार रहेगा। इस दौरान हमनें सुपौल जिले के प्रतापगंज ब्लाक के दस गांवों (दुअनियां, भवानीपुर, इस्लामपुर, भेडवा, हाडाबाद, अरराहा, ब्रहमोत्रा, सुरियारी, प्रतापगंज, टेकुनाद्ध में नियमित तौर पर राहत सामगि्रयों का वितरण किया और मधेपुरा के सिंहेष्वर प्रखंड से सटे हरिाराहा, रामपुर लाही, बरियाही, भथनी, परिहारी, जिरवा, टिकुलिया, रहटा और पटोरी गांवों में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के प्रयास किये। प्रतापगंज के गांवों में हमनें षुरूआत में दिल्ली की एक संस्था की मदद से राषन किट का वितरण किया और बाद में टेंट, बरतन, दवाइयां, कंबल, बाल्टी, मच्छरदानी, टार्च, साबुन, तेल इत्यादि सामगि्रयां भी उपलब्ध कराई। इन आंकडों के इतर प्रतापगंज में चले हमारे राहत अभियान की खासियत सामगि्रयों की मात्रा न होकर उसकी संचालन पद्धति रही। उन दिनों जब सारी संस्थाएं राहत षिविरों में रहकर काम कर रही थीं। हमनें पीडित गांवों में रहकर काम करने का फैसला किया। क्योंकि पहले दिन से हमारा लक्ष्य साफ था कि हमें राहत के रूप में खैरात नहीं बांटना है, बल्कि पीडितों को कुछ इस तरह मदद करना है ताकि वे संभल जाएं। जब अधिकांष राहत अभियानों ने लोगों को पंगु बनाने के अलावा कोई खास योगदान नहीं किया। अपने इसी लक्ष्य के कारण हमनें पीडित गांवों में बस कर लोगों से जुडने और उनके दुख दर्द को समझने की कोषिष की और फिर जिस इंसान को जैसी जरूरत हुई उसे वह उपलब्ध कराने की कोषिष की। अक्सर हम बातें भी किया करते थे कि अपने अभियान के तहत जो सामग्री हम सबसे अधिक बांटेंगे वह मीठे बोल होंगे। आज भी हम लोगों में से एक या दो लोग प्रतापगंज में ही रहते हैंं और उनका काम रोज सुबह गांव में टहलना और घर-घर जाकर लोगों से मिलना उनसे बातें करना होता है। इस दौरान हमें उनके घर में जिस चीज का अभाव नजर आता है और वह चीज अगर हमारे पास होती है तो हम उन्हें वह सामान उपलब्ध करा देते हैं। षुरूआत में जरूर हमनें कूपन बांटकर सामान बंटवाए पर बाद के दिनों में हमनें भीड लगाकर सामान बंटवाने का तरीका ही बंद कर दिया। क्योंकि यह तरीका लोगों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला था।उसी तरह मधेपुरा के सिंहेष्वर प्रखंड के निकटवर्ती गांवों में चला हमारा अभियान भी कुछ खास ही था। यह इलाका बाढ से सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में से था और हम चाहते थे कि यहां हम सघन अभियान चला सकें। मगर प्रतापगंज के लिए तो हमें राहत सामग्री मिल रही थी, इस इलाके लिए तमाम प्रयास के बावजूद हमें आष्वासन के सिवा कुछ भी नहीं मिला। ऐसे में भोपाल और धनबाद के मित्रों द्वारा भेजी गई दवाइयां काम आईं और हमनें इन इलाकों में मेडिकल कैंप चलाने की योजना बना डाली। हमारे पास डाक्टर नहीं थे, यह एक बडी समस्या थी। पर हमारे साथी पंकज और रूपेष ने इसका भी तोड निकाल लिया। उन्होंने डाक्टर फोर यू और यूथ फार इक्वलिटी के डाक्टर साथियों को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वे अपना अधिकांष समय इन इलाकों के लिए दें। हम इस बात के लिए आभारी हैं कि अपनी संस्थाओं की नाराजगी झेलते हुए भी उन्होंने खास तौर पर डाण् लोकेष और डाण् प्रियदषZ ने इन इलाकों के लिए पर्याप्त समय दिया। इस अभियान के दौरान खीची गई तस्वीरें काफी बेहतर हैं, जिन्हें मैं ब्लाग पर उपलब्ध कराने की कोषिष करूंगा।
Posted by पुष्यमित्र at 11/04/2008 0 comments
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