Tuesday, October 7, 2008

कोसी की तकदीर लिखने से पहले

हम कोसीवासी फिर उसी तिराहे पर खडे हैं, जहां तकरीबन पचपन साल पहले थे। उन दिनों जोर-शोर से बहस हुआ करती थी कि आखिर इस उच्चश्र्रंखल नदी का क्या उपाय किया जाय। इसके कोप से उत्तर बिहार के लाखों बािशंदों को कैसे बचाया जाय। क्या बराज और तटबंध के जरिये कोसी को काबू में किया जा सकता है। या बराह क्षेत्र में प्रस्तावित हाई डैम ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है। या फिर जैसा कि पर्यावरणविद कहा करते हैं, इस चंचल नदी को यूं ही छोड दिया जाय और इसके कोप से तालमेल बिठाकर जीने की कोिशश की जाय।
हालांकि हमारी सरकार ने असफल बराज और तटबंधों के बीच इस शरारती नदी को फिर से कैद करने का फैसला ले लिया है, यह जानने के बावजूद कि बराज और तटबंध 25 साल पहले ही एक्सपायर हो चुके हैं। हमारे इलाके की अच्छी खासी आबादी, खास तौर पर वे लोग जिनके इलाके में इस बार कोसी ने तबाही मचाई है सरकार के इस फैसले से सहमत नजर आते हैं। उनकी नजर में बराज कभी एक्सपायर हुआ ही नहीं। यह भीषणतम हादसा इंजीनियरों-ठेकेदारों की लापरवाही और हठधर्मिता के कारण हुआ। दरअसल इन लोगों ने बराज बनने के बाद की 50 साल की नििश्चंता को जिया है। हालांकि इस दौरान भी कई बार तटबंध टूटे और भीषण बाढें भी आईं, पर नदी के रास्ता बदलने की खतरनाक अदा से मुक्ति मिल गई थी। मगर ये लोग इस नदी के साथ आने वाली सिल्ट की भीषण समस्या से या तो अनजान हैं या किसी सुपर नेचुरल सरकारी तुक्के से इसके समाधान की उम्मीद लगा बैठे हैं। जबकि इसी गाद के कारण कई सालों से बराज नाकाम पडा है और 9 लाख क्यूसेक तक का बहाव झेल चुका तटबंध इस बार डेढ-पौने दो लाख क्यूसेक दबाव नहीें बरदास्त कर पाया। इसके बावजूद अगर सिल्ट की सफाई कराये बगैर कोसी नदी को फिर से तटबंधों के बीच से इसी बराज के रास्ते गुजारने की कोिशश की गई तो हमें और हमारी सरकार को अगले साल फिर से ऐसी तबाही के लिए तैयार रहना होगा। अगर सरकार के पास सचमुच सिल्ट की सफाई की कोई योजना है तो इसे भी सबके सामने आना चाहिए। क्योंकि बराज के अंदर इतना सिल्ट जमा हो चुका है कि जेसीबी मशीन और गाडियों के जरिये इसकी सफाई में लंबा समय लग सकता है।
इस उधेडबुन वाली स्थिति में कई लोग परमानेंट साल्यूशन के नाम पर फिर से बराह क्षेत्र में प्रस्तावित हाई डैम की वकालत करने लगे हैं। यह डैम 60-65 साल से प्रस्तावित है, मगर इस पर काम शुरू नहीं किया जा सका क्योंकि यह परियोजना काफी महंगी थी। मगर कभी इस परियोजना को नकारा नहीं गया और इसकी तुलना में बराज को हमेशा तात्कालिक समाधान ही माना जाता रहा। बराज के निर्माण के वक्त भी सबसे आशावादी विशेषज्ञ ने भी इसकी उम्र 25 साल से अधिक नहीं आंकी थी। मगर उस वक्त जिन कारणों से हाई डैम परियोजना को स्थगित कर दिया गया था वे आज भी मौजूद हैं। आज की तारीख में इस परियोजना की लागत तकरीबन 1 लाख करोड है। कहा जा रहा है कि इस परियोजना से काफी बिजली बनेगी। जापान की एक वित्तीय ऐजेंसी इसमें पैसा लगाने के लिए भी तैयार है। मगर इस डैम से उत्पादित होने वाली बिजली भी काफी महंगी होगी। इसके अलावा बराह क्षेत्र भूकंप प्रभावित जोन में पडता है, ऐसे में अगर यह हाई डैम बन भी गया तो हमेशा एक भीषण आपदा का संकट मंडराता रहेगा और वह आपदा मौजूदा आपदा से कही बडी होगी। इस डैम के बारे में एक और दीगर तथ्य यह है कि आज की तारीख में अगर इसका निर्माण शुरू करवा भी दिया जाय तो इसे पूरा होने में लगभग बीस साल का समय लगेगा। लिहाजा इस परियोजना को स्वीकारने और नकारने के बीच बहस की लंबी गुंजाइश है।
अब बांध विरोधी पर्यावरणविदों का रास्ता यानि कोसी नदी के साथ सहजीवन का प्रयास। इन लोगों का मानना है कि नदी के सिल्ट लाने की क्षमता को नकारात्मक नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि इस सिल्ट के जरिये भावी पीिढयों के लिए अच्छी जमीन का निर्माण हो रहा है। इन विशेषज्ञों की यह बात भी सच है कि अगर नदी को आजाद छोड दिया जाय तो कभी इतने बडे हादसे होंगे ही नहीं। मगर यह पूरी तरह सच नहीं कि अगर सालाना बाढ से तालमेल बिठाकर जीना सीख लिया जाय तो समस्या रहेगी ही नहीं। कोसी नदी की समस्या सिर्फ बाढ की नहीं है यह इसके बारबार रास्ता बदलने और इसके बाद जमीन को परती बना देने की भी है। हर 30-35 सालों में यह रास्ता बदल लेती है, जिसके कारण जानमाल की व्यापक क्षति होती है। हालांकि लोगों को अब याद नहीे पर 1930 के आसपास जब इसने रास्ता बदला था तो सुपौल का नाथनगर कस्बा पूरी तरह तबाह हो गया था। क्या नदी के साथ सहजीवन का अर्थ यह भी है कि हमें ऐसे हादसों के लिए तैयार रहना पडेगा। ऐसे में इन इलाकों में कोई पुल नहीं होगा, कोई सडक या रेल नहीं होगी, बिजली नहीं होगी, जैसा कि कोसी नदी के दोनों तटबंधों के बीच के गांवों में आज भी हो रहा है। इक्कीसवीं सदी के विकसित भारत में ऐसे हालात में जीना कौन चाहेगा ?
ऐसा नहीं कि हम इनमें से हर उपाय से पूरी तरह असहमत हैं। दरअसल अपने जीवन की कीमत पर हमें हर उपाय अधूरा ही लगता है। खास तौर पर उन हालातोें में जब सरकार हमसे पूछे बगैर हमारी किस्मत का फैसला कर चुकी है। हमारा सिर्फ इतना कहना है कि बहस होनी चाहिए, पीडितों की राय भी ली जानी चाहिए। ऐसे में याद आता है आजादी के बाद की बिहार सरकार का वह फैसला जिसके तहत कोसी की पूरी बाढ पीडित आबादी को झारखंड के रामगढ में बसाने की योजना बनी थी। आज हम इसे तुगलकी फरमान कहकर इस पर हंस सकते हैं, मगर इस योजना में कम से कम हमलोगों के प्रति सरकार की संवेदना तो झलकती थी। आजादी के बाद लगभग आठ साल बहस चलने के बाद बराज और तटबंध के निर्माण का फैसला लिया गया, मगर इस बार सक्षम लोगों की चुप्पी बहुत अखरने वाली है।

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